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ए॒ता ते॑ अग्न उ॒चथा॑नि वे॒धोऽवो॑चाम क॒वये॒ ता जु॑षस्व। उच्छो॑चस्व कृणु॒हि वस्य॑सो नो म॒हो रा॒यः पु॑रुवार॒ प्र य॑न्धि ॥२०॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

etā te agna ucathāni vedho vocāma kavaye tā juṣasva | uc chocasva kṛṇuhi vasyaso no maho rāyaḥ puruvāra pra yandhi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए॒ता। ते॒। अ॒ग्ने॒। उ॒चथा॑नि। वे॒धः॒। अवो॑चाम। क॒वये॑। ता। जु॒ष॒स्व॒। उत्। शो॒च॒स्व॒। कृ॒णु॒हि। वस्य॑सः। नः॒। म॒हः। रा॒यः। पु॒रु॒ऽवा॒र॒। प्र। य॒न्धि॒॥२०॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:2» मन्त्र:20 | अष्टक:3» अध्याय:4» वर्ग:19» मन्त्र:5 | मण्डल:4» अनुवाक:1» मन्त्र:20


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वेधः) बुद्धिमान् (अग्ने) विद्वान् धार्मिक राजन् ! हम लोग (कवये) सब विद्या से युक्त (ते) आपके लिये जिन (एता) इन (उचथानि) उचित वचनों को (अवोचाम) कहें (ता) उनको आप (जुषस्व) सेवो और (उत्, शोचस्व) अत्यन्त विचारो (कृणुहि) करो (पुरुवार) हे बहुत आप्त अर्थात् सत्यवादी पुरुषों का स्वीकार करनेवाले ! (नः) हम लोगों के लिये (महः) बड़े (वस्यसः) अतिशयित निवसे धरे हुए (रायः) धनों को (प्र, यन्धि) उत्तमता से देओ ॥२०॥
भावार्थभाषाः - राजा को चाहिये कि यथार्थवक्ता ही पुरुषों के वचनों को सुन और उत्तम प्रकार विचार कर सेवन करें, उन यथार्थवक्ता पुरुषों के लिये प्रिय वस्तुओं को देकर वे निरन्तर सन्तुष्ट करने योग्य हैं, इस प्रकार राजा और यथार्थवक्ता पुरुषों की सभा सब मिल कर सब कर्म्मों को सिद्ध करें ॥२०॥ इस सूक्त में राजा, प्रजा और यथार्थवक्ता पुरुष के कृत्यवर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥२०॥ यह द्वितीय सूक्त और उन्नीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे वेधोऽग्ने ! वयं कवये ते यान्येता उचथान्यवोचाम ता त्वं जुषस्वोच्छोचस्व कृणुहि, हे पुरुवार ! नो महो वस्यसो रायः प्र यन्धि ॥२०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (एता) एतानि (ते) तुभ्यम् (अग्ने) विद्वन्धार्मिकराजन् (उचथानि) उचितानि वचनानि (वेधः) मेधाविन् (अवोचाम) वदेम (कवये) सर्वविद्यायुक्ताय (ता) तानि (जुषस्व) सेवस्व (उत्) (शोचस्व) विचारय (कृणुहि) अनुतिष्ठ (वस्यसः) वसीयसः (नः) अस्मभ्यम् (महः) महतः (रायः) धनानि (पुरुवार) यः पुरून् बहूनाप्तान् वृणोति तत्सम्बुद्धौ (प्र) (यन्धि) प्रयच्छ ॥२०॥
भावार्थभाषाः - राज्ञा आप्तानामेव वचांसि श्रुत्वा सुविचार्य्य सेवनीयानि तेभ्य आप्तेभ्यः प्रियाणि वस्तूनि दत्वैते सततं सन्तोषणीया एवं राजाप्तसभे मिलित्वा सर्वाणि कर्माणि समापयेतामिति ॥२०॥ अथ राजप्रजाऽप्तजनकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥२०॥ इति द्वितीयं सूक्तमेकोनविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - राजाने आप्त विद्वान पुरुषांचे वचन ऐकून व उत्तम प्रकारे विचार करून ग्रहण करावे. विद्वान पुरुषांना प्रिय वस्तू देऊन निरंतर संतुष्ट करावे. या प्रकारे राजा व विद्वान पुरुषांची सभा सर्वांनी मिळून सर्व कर्म सिद्ध करावे. ॥ २० ॥